ज़मीं पर ज़ुल्म की हद जो रही है
खुदाया पार अब वोह हो रही है
जहाँ में मौत का ही रक़्स जारी
अज़ल* से ज़िंदगी बस रो रही है
ज़रा पूछो तो उसका दर्द जा कर
ज़मीं ये बोझ कैसे ढो रही है
अदब तहज़ीब थी जिसकी विरासत
खबर उस नस्ल को क्या खो रही है
चिता जलने को है अब राक्षस की
तभी तो रौशनी सी हो रही है
-शम्स उर रहमान अलवी
खुदाया पार अब वोह हो रही है
जहाँ में मौत का ही रक़्स जारी
अज़ल* से ज़िंदगी बस रो रही है
ज़रा पूछो तो उसका दर्द जा कर
ज़मीं ये बोझ कैसे ढो रही है
अदब तहज़ीब थी जिसकी विरासत
खबर उस नस्ल को क्या खो रही है
चिता जलने को है अब राक्षस की
तभी तो रौशनी सी हो रही है
-शम्स उर रहमान अलवी
अज़ल*- अनादिकाल
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