गली कूचों में सन्नाटा बिछा है
हमारे शहर में क्या हो रहा है
ये किस ने ज़हर घोला है फ़ज़ा में
ये कैसा ख़ौफ़ तारी हो गया है
गले मिलना यहाँ की रीत कब थी
मिलाना हाथ भी दूभर हुआ है
सभी चेहरे नक़ाबों में छुपे हैं
सभी के दरमियाँ इक फ़ासला है
दुकानें बंद हैं अब शहर भर में
निज़ाम-ए-ज़िंदगी बदला हुआ है
हुए हैं क़ैद अपने ही घरों में
कि दुश्मन का अजब ये पैंतरा है
अजब ये जंग-ए-पोशीदा है इस को
घरों में बंद हो कर जीतना है
किरण उम्मीद की अब दिख रही है
उफ़ुक़ के पार कोई नूर सा है
-अखिल भंडारी
पोशीदा = अदृश्य
उफ़ुक़ = क्षितिज
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteअजब ये जंग-ए-पोशीदा है इस को
ReplyDeleteघरों में बंद हो कर जीतना है
वाह!!!
बहुत सुन्दर समसामयिक सृजन।
वाह सुन्दर रचना
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