Tuesday, November 19, 2019

पावस ....डा.विमल ढौंडियाल

अलि गुञ्जन सम मधुहास लिए
तटिनी कलरव परिहास प्रिये!
विधु रश्मियुता शरदीय सखे!
हर लो विरहज संताप प्रिये!

प्राण प्रिये प्रणतात्मन् मैं
प्रणतपाणि प्रणिपात करूँ 
प्रणय प्रेम परिपूर्ण करो 
पावस बन निर्झर सी झरो ||

परिपूर्ण भरो प्रणयी घट को 
प्रणय पाश आलिगंन दो
स्नेह नीर पयोद करें 
पावस बन निर्झर सी झरो ||

लहराओ निज केश छटा
आच्छादित नभ कृष्ण घटा 
दिग्वास करो हिय सुवास भरो 
पावस को मधुमास करो |

कलिका लतिका अलि केलि करे
सुमनायुध वर्ण विवर्ण करे
अनुराग बढा हे  विराग हरो 
अधर पराग का पावस दो ||

आओ इस पल के पालने में
मकरंद सुधारस पान करें 
रति-काम बने अधराधर को 
मकरंद सुधा का पावस दें |
-डा.विमल ढौंडियाल 

6 comments:

  1. वाह्ह्ह् अति उत्तम।

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  2. लौकिक प्रेम को आलौकिता से प्रदर्शित करती कोमलकांत शब्दावली और मनोरम अलंकृत अभिव्यक्ति। अनुप्रास की छटा के का कहने 👌👌👌सादर🙏🙏

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    1. डॉ.विमल ढौंडियालJuly 29, 2022 at 6:14 PM

      बहुत बहुत आभार व सम्मान

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  3. बहुत बहुत आभार

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