कभी अपने अन्दर का
राक्षस देखना हो,
तो उग्र भीड़ में
शामिल हो जाना.
जब भीड़ से निकलो,
तो सोचना
कि जिसने पत्थर फेंके थे,
आगजनी की थी,
तोड़-फोड़ की थी,
बेगुनाहों पर जुल्म किया था,
जिसमें न प्यार था, न ममता,
न इंसानियत थी, न करुणा,
जो बिना वज़ह
पागलों-सी हरकतें कर रहा था,
वह कौन था?
उसे जान लो,
अच्छी तरह पहचान लो,
देखो, तुम्हें पता ही नहीं था
कि वह तुम्हारे अन्दर ही
कहीं छिपा बैठा है...!!
लेखक परिचय - ओंकार जी केडिया
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