आज फिर
इन सीढियों पर
नर्म आहट खुशबुओं की
दबे पाँवों धूप लौटी
और कमरे में घुसी
उँगलियाँ पकड़े हवा की
चढ़ी छज्जे पर ख़ुशी
बात फिर
होने लगी है
फुसफुसाहट खुशबुओं की
एक नीली छाँव
दिन भर
खिड़कियाँ छूने लगी
आँख-मींचे देखती रितु
ढाई आखर की ठगी
तितलियाँ
दालान भर में
है बुलाहट खुशबुओं की
1940-2019
-कुमार रवीन्द्र
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14.11.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3519 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की गरिमा बढ़ाएगी ।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क