Thursday, November 7, 2019

तुम्हारी आँखें ...श्वेता सिन्हा

ठाठें मारता 
ज्वार से लबरेज़
नमकीन नहीं मीठा समुंदर
तुम्हारी आँखें

तुम्हारे चेहरे की
मासूम परछाई
मुझमें धड़कती है प्रतिक्षण
टपकती है सूखे मन पर
बूँद-बूँद समाती
एकटुक निहारती
तुम्हारी आँखें

नींद में भी चौंकाती
रह-रह कर परिक्रमा करती
मन के खोह,अबूझ कंदराओं,
चोर तहखानों का
स्वप्न के गलियारे में 
थामकर उंगली
अठखेलियाँ करती
देह पर उकेरती 
बारीक कलाकृत्तियाँ
तुम्हारी आँखें

बर्फ की छुअन-सी
तन को सिहराती
कभी धूप कभी चाँदनी
कभी बादल के नाव पर उतारती
दिन के उगने से रात के ढलने तक
दिशाओं के हर कोने से
एकटुक ताकती
मोरपंखी बन सहलाती
तुम्हारी आँखें....
-श्वेता सिन्हा


5 comments:

  1. कहत,नटत,रीझत,खीझत,मिलत,खिलत,लजियात।
    भरे भुवन में करत हैं नयनन ही सों बात !!!
    बिहारी जी का यह दोहा याद आ गया आपकी रचना को पढ़कर।
    आँखों के सौंदर्य के सुंदर प्रतिमान गढ़े हैं। बहुत खूबसूरत रचना प्रिय श्वेता।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 07 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. बहुत ही सुंदर रचना स्वेता जी

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  4. तुम्हारे चेहरे की
    मासूम परछाई
    मुझमें धड़कती है प्रतिक्षण
    टपकती है सूखे मन पर
    बूँद-बूँद समाती
    एकटुक निहारती
    तुम्हारी आँखें वाह बेहतरीन रचना

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  5. बहुत सुन्दर! बहुत सुन्दर! बहुत सुन्दर!

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