ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से- अज्ञेय
ऊपर फैला है आकाश,भरा तारों से
भार-मुक्त से तिर जाते हैं
पंछी डैने बिना फैलाये ।
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ
उमगते स्वर
जो कभी नहीं भीतर से फूटे
कभी नहीं जो मैं ने -
कहीं किसी ने - गाये ।
किन्तु अधूरा है आकाश
हवा के स्वर बन्दी हैं
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -
हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ
जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर
तारों मे स्थिर मेरे तारे,
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।
भार-मुक्त
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।
यह लो :
लाली से में उभर चम्पई
उठा दूज का चाँद कँटीला ।
-अज्ञेय
आभार
ReplyDeleteअज्ञेय जी की रचना पढ़वाने के लिए
सादर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-11-2018) को "प्यार से पुकार लो" (चर्चा अंक-3136) (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
ReplyDeleteअतुलनीय अज्ञेय,
ReplyDeleteबहुत शानदार,
नमन
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नींद ख़ामोशियों पर छाने लगी - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना अज्ञेय जी
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