न मेरे ज़हर में तल्ख़ी रही वो पहली सी
बदन में उस के भी पहला सा ज़ाइक़ा/ज़ायका न रहा
हमारे बीच जो रिश्ते थे सब तमाम हुए
बस एक रस्म बची है शिकस्ता पुल की तरह
कभी-कभार जवाब भी हमें मिलाती है
मगर ये रस्म भी इक रोज़ टूट जाएगी
अब उस का जिस्म नए साँप की तलाश में है
मिरी हवस भी नई आस्तीन ढूँढती है
- शकील आज़मी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-11-2018) को "ओ३म् शान्तिः ओ३म् शान्तिः" (चर्चा अंक-3158) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह !!बहुत खूब 👌
ReplyDeleteवाह !!बहुत खूब 👌
ReplyDeleteबहुत खुब ।
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