हम क्यों रचें
अपने प्यार के इर्दगिर्द
एक स्वप्न-संसार?
क्यों हम नामुमकिन वादें करें?
क्यों ताजमहल को ही सबूत मानें
बेपनाह मोहब्बतों का?
करें क्यों हम भी वही
जो शाहजहां या शहज़ादे करें?
प्यार अनुभूति है नाजुक-सी
कोई बोझ तो नहीं
जो हम हर कहीं
हर घड़ी लादें फिरें।
आसमानों के सपनें तो फरेबी हैं
आओ कि...
हम इसी ज़मीं पर
जीने के इरादे करें।
मन की उपज
वाह बहुत खूब।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-10-2018) को "इस धरा को रौशनी से जगमगायें" (चर्चा अंक-3147) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'