साँझ को नभ के दालान से
पहाड़ी के कोहान पर फिसलकर
क्षितिज की बाहों में समाता सिंदुरिया सूरज,
किरणों के गुलाबी गुच्छे
टकटकी बाँधें खड़े पेड़ों के पीछे उलझकर
बिखरकर पत्तों पर
अनायास ही गुम हो जाते हैंं,
गगन के स्लेटी कोने से उतरकर
मन में धीरे-धीरे समाता विराट मौन
अपनी धड़कन की पदचाप सुनकर चिंहुकती
अपनी पलकों के झपकने के लय में गुम
महसूस करती हूँ एकांत का संगीत
चुपके से नयनों को ढापती
स्मृतियों की उंगली थामे
मैं स्वयं स्मृति हो जाती हूँ
एक पल स्वच्छंद हो
निर्भीक उड़कर
सारा सुख पा लेती हूँ,
नभमंडल पर विचरती चंचल पंख फैलाये
भूलकर सीमाएँ
कल्पवृक्ष पर लगे मधुर पल चखती
सितारों के वन में भटकती
अमृत-घट की एक बूँद की लालसा में
तपती मरुभूमि में अनवरत,
दिव्य-गान हृदय के भावों का सुनती
विभोर सुधि बिसराये
घुलकर चाँदनी की रजत रश्मियों में
एकाकार हो जाती हूँ
तन-मन के बंधनों से मुक्त निमग्न
सोमरस के मधुमय घूँट पी
कड़वे क्षणों को विस्मृत कर
चाहती हूँ अपने
एकांत के इस उत्सव में
तुम्हारी स्मृतियों का
बहुत ही सुन्दर बिंब आदरणीया 👌
ReplyDeleteएकांत के इस उत्सव में
ReplyDeleteतुम्हारी स्मृतियों का
चिर स्पंदन।
......वाह! अद्भुत!!!
वाह
ReplyDeleteतन-मन के बंधनों से मुक्त निमग्न
ReplyDeleteसोमरस के मधुमय घूँट पी
कड़वे क्षणों को विस्मृत कर
चाहती हूँ अपने
एकांत के इस उत्सव में
तुम्हारी स्मृतियों का
चिर स्पंदन। बहुत ही बेहतरीन रचना
वाहह..बहुत बढिया शब्दों और भावों के स्पंदन..
ReplyDeleteस्तब्ध हो जाती हूं आपकी ऐसी विलक्षण कृतियां देख शब्दों का अतुल्य अलंकारिक प्रयोग और काव्य रस जैसे छलका जा रहा हो और स्वयं को पाती हूं जैसे...
ReplyDeleteएकाकार हो जाती हूँ
तन-मन के बंधनों से मुक्त निमग्न
सोमरस के मधुमय घूँट पी।
वाह्
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-11-2018) को "किसी कच्ची मिट्टी को लपेटिये जनाब" (चर्चा अंक-3159) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!वाह!वाह!
ReplyDeleteअद्भुत!!!बहुत बढिया
स्मृतियों की उंगली थामे
ReplyDeleteमैं स्वयं स्मृति हो जाती हूँ
एक पल स्वच्छंद हो
निर्भीक उड़कर
सारा सुख पा लेती हूँ,.....अति सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीया श्वेता जी। मन प्रसन्न हो गया।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 17/11/2018 की बुलेटिन, " पंजाब केसरी को समर्पित १७ नवम्बर - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteकड़वे क्षणों को विस्मृत कर
ReplyDeleteचाहती हूँ अपने
एकांत के इस उत्सव में
तुम्हारी स्मृतियों का
चिर स्पंदन।
अद्भुत ! भावों को पिरोना भी फूलों को गूँथने जैसी नाजुक प्रक्रिया है। जरा सा तारतम्य बिखरा कि पूरी माला की सुंदरता नष्ट हो सकती है। आपकी सुघड़ लेखनी इन शब्दसुमनों को पिरोती है उनकी नज़ाकत बरकरार रखते हुए.... और अद्भुत भावसौंदर्य का सृजन करती है !!!
वाह! सुन्दर !!
ReplyDeleteसृष्टि का सुरम्य संगीत सुनाती मनमोहक रखना। अंतःकरण से प्रस्फुटित होते सुकोमल भावों ने एकांत के क्षणों को जीवंतता प्रदान की है। शब्द, भाव एवं विचार का मनोहारी सामंजस्य पाठक को आद्योपांत बाँधे रखता है। बधाई एवं शुभकामनाऐं। लिखते रहिये।
वाह!!श्वेता ,सुंदर शब्द ,सुंदर भावों से सजी अप्रतिम रचना ।
ReplyDeleteएकांत के इस उत्सव मे स्मृतियों का चिर स्पंदन।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर उत्कृष्ट कोटि की अभिव्यक्ति .... बहुत-बहुत बधाई आदरणीय श्वेता जी।
लाजवाब
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा
बहुत सुंदर भाव संयोजन
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन श्वेता
ReplyDeleteहे महादेवी वर्मा की शिष्या ! आपकी कविता तो केवल मंदिर के पवित्र वातावरण में पढ़ी जा सकती है.
ReplyDeleteआपकी शुद्ध-प्रांजल भाषा, उच्च विचार और निश्छल प्रेम का सन्देश हमको मीरा की याद दिलाते हैं.
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete😮 एक-एक पंक्ति एक दूसरे से बंधा हुआ मानो जैसे मोतियों से पिरोया माला। पहली पंक्ति से लेकर अंतिम पंक्ति तक कहीं भी बीच में छोड़ने का मन नहीं किया। असाधारण, श्वेता दी।
ReplyDeleteObat Aborsi Asli
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