अच्छा हुआ कि लोग गिरह खोलने लगे।
दिल के ज़हर शिगाफ़े-लब से घोलने लगे।।
पलकों से बूंद-बूंद गिरी ख़्वाहिशें तमाम।
उम्रे-रवाँ के ख़्वाब सारे डोलने लगे।।
ख़ुश देखकर मुझे वो परेश़ान हो गये।
फिर यूँ हुआ हर लफ़्ज़ मेरे तौलने लगे।।
मैंने ज़रा-सी खोल दी मुट्ठी भरी हुई।
तश्ते-फ़लक पर तारे रंग घोलने लगे।।
सिसकियाँ सुनता नहीं सूना हुआ शहर।
हँस के जो बात की तो लोग बोलने लगे।।
#श्वेता सिन्हा
शिग़ाफ़े-लब=होंठ की दरार, उम्रे-रवाँ=बहती उम्र
तश्ते-फ़लक=आसमां की तश्तरी
वाह
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.11.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3156 में जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
वाह! सुभान अल्लाह!!!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना सखी 👌
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर गजल प्रिय श्वेता ! उर्दू में भी बेहतरीन लेखन | हार्दिक शुभकामनायें |
ReplyDeleteContent is really very strong.
ReplyDelete"सिसकियाँ सुनता नहीं सूना हुआ शहर।
हँस के जो बात की तो लोग बोलने लगे"
लाजवाब रचना👌
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल श्वेता जी
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteवाह ...हंस के की बात तो लोग बोलने लगे ..
ReplyDeleteसत्य का उदघोष सखी श्वेता जी ...
कुछ कहने पर तूफान उठा लेती है दुनियाँ
बहुत खूब..जी👌👌👌
ReplyDeleteवाह बहुत उम्दा हर शेर कुछ कहता सा।
ReplyDeleteलफ्जों की बेसकीमती जादुगरी।
बेमिसाल ।
अप्रतिम सखी श्वेता
ReplyDeleteआज की हकीकत बयां करती हुई पंक्तियां
ReplyDeleteबहुत सन्दर रचना!!! आप आसमान की ऊँचाईयों छुए...आपके काव्य से मै संतुष्ठ हूँ!
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