तुमसे मिलकर कौन सी बातें करनी थी मैं भूल गयी
शब्द चाँदनी बनके झर गये हृदय मालिनी फूल गयी
मोहनी फेरी कौन सी तुमने डोर न जाने कैसा बाँधा
तेरे सम्मोहन के मोह में सुध-बुध जग भी भूल गयी
मन उलझे मन सागर में लहरों ने लाँघें तटबंधों को
सारी उमर का जप-तप नियम पल-दो-पल में भूल गयी
बूँदे बरसी अमृत घुलकर संगीत शिला से फूट पड़े
कल-कल बहती रसधारा में रिसते घावों को भूल गयी
तुम साथ रहो तेरा साथ रहे बस इतना ही चाहूँ तुमसे
मन मंदिर के तुम ईश मेरे तेरे नेह में ईश को भूल गयी
-श्वेता सिन्हा
वाह एक और लाजवाब रचना।
ReplyDeleteवाह!श्वेता , बहुत ही उम्दा !!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteनि:शब्द!!!
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.11.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3163 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व दूरदर्शन दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteइश्क़ जब हद से गुज़र जाता है तो आशिक़ को माशूक़ में ही ख़ुदा नज़र आता है.
ReplyDeleteप्रेम की पराकाष्ठा है यह श्वेता जी ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना सखी 👌
ReplyDeleteवाह शानदार रचना
ReplyDeleteबूँदे बरसी अमृत घुलकर संगीत शिला से फूट पड़े
ReplyDeleteकल-कल बहती रसधारा में रिसते घावों को भूल गयी
सुन्दर पंक्तियाँ।और शानदार कृति।
तुम साथ रहो तेरा साथ रहे बस इतना ही चाहूँतुमसे
ReplyDeleteमन मंदिर के तुम ईश मेरे तेरे नेह में ईश को भूल गयी
बहुत ही लाजवाब कृति....
वाह!!!
एक बुत बनाऊंगा और पूजा करूंगा ...
ReplyDeleteवाह !श्रृंगार में अद्भुत समर्पण बहुत सुंदर गजल ।