एक नन्ही ख़्वाहिश
चाँदनी को अंजुरी में भरने की,
पिघलकर उंगलियों से टपकती
अंधेरे में ग़ुम होती
चाँदनी देखकर
उदास रात के दामन में
पसरा है मातमी सन्नाटा
ठंड़ी छत को छूकर सर्द किरणें
जगाती है बर्फीला एहसास
कुहासे जैसे घने बादलों का
काफिला आकर
ठहरा है गलियों में
पीली रोशनी में
नम नीरवता पाँव पसारती
पल-पल गहराती
पत्तियों की ओट में मद्धिम
फीका सा चाँद
अपने अस्तित्व के लिए लड़ता
तन्हा रातभर भटकेगा
कंपकपाती नरम रेशमी दुशाला
तन पर लिपटाये
मौसम की बेरूखी से सहमे
शबनमी सितारे उतरे हैं
फूलों के गालों पर
भींगी रात की भरी पलकें
सोचती है
क्यूँ न बंद कर पायी
आँखों के पिटारे में
कतरनें चाँदनी की,
अधूरी ख़्वाहिशें
अक्सर बिखरकर
रात के दामन में
यही सवाल पूछती हैं।
-श्वेता सिन्हा
वाह बहुत सुन्दर
ReplyDeleteकतरनें चाँदनी की,
ReplyDeleteअधूरी ख़्वाहिशें
अक्सर बिखरकर
रात के दामन में
यही सवाल पूछती हैं।..... की इतने अद्भुत बिंबो का वितान आप इतनी तन्मयता से कैसे तान देती हैं। नमन आपकी विलक्षण प्रतिभा को। मां श्वेता का आशीष बना रहे ! बधाई और आभार!!!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-11-2018) को ."एक फुट के मजनूमियाँ” (चर्चा अंक-3161) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शानदार सृजन
ReplyDeleteवाह !!शानदार सृजन सखी👌
ReplyDeleteएक नन्ही ख़्वाहिश
चाँदनी को अंजुरी में भरने की,.....
Very nice post...
ReplyDeleteWelcome to my blog for new post.
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, श्वेता दी।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteजब ऐसे सुनहरे एहसास .... प्रकृति की अध्बुध छवि दिखाई देती है तो समेटना कहाँ आसान होता है ...
ReplyDeleteइसे तो बस निहारा जाता है ... एक पल को सब कुछ विस्मृत कर देता है ये ... फिर जागती है अभिलाषा पर प्राकृति अपना रूप बदल देती है ...
बहुत सुन्दर श्वेता जी.
ReplyDeleteआप कविता लिखते-लिखते उसमें खुद बह जाती हैं और हमको भी अपने साथ बहा ले जाती हैं. रात तो हमने भी देखी है, चाँद-तारे भी हमने देखे हैं पर आपकी तरह से उन्हें महसूस नहीं किया है.
आप दिमाग से नहीं, दिल से कविता करती हैं.
वाह ! वाह ! और फिर एक बार वाह ! वाह !