Monday, October 1, 2018

ऐ शरीफ़ इंसानों........... साहिर लुधियानवी


खून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर,
जंग मशरिक में हो या मगरिब में,
अमन-ऐ-आलम का ख़ून है आख़िर !

बम घरों पर गिरे के सरहद पर , 
रूह-ऐ-तामीर जख्म खाती है !
खेत अपने जले के औरों के ,
ज़ीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है !

टैंक आगे बढ़ें की पीछे हटें,
कोख धरती की बाँझ होती है !
फतह का जश्न हो के हार का सोग,
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है !

जंग तो खुद ही एक मसलआ है
जंग क्या मसअलों का हल देगी ?
आग और ख़ून आज बख्शेगी
भूख और एहतयाज कल देगी ! 

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों ,
जंग टलती रहे तो बेहतर है !
आप और हम सभी के आँगन में,
शमा जलती रहे तो बेहतर है 
- साहिर लुधियानवी

शब्दार्थ
नस्ल-ए-आदम = आदम का वशंज, मशरिक = पूर्व दिशा, 
मगरिब = पश्चिम, अम्न-ए-आलम = विश्व शांति, ज़ीस्त = जीवन, फ़ाक़ों = गरीबी / उपवास, एहतियाज = बलिदान

5 comments:

  1. साहिर लुधियानवी मेरे प्रिय लेखकों में से एक है.
    ये कविता रडियो पर सन १९९९ में काफी बार पढ़ी गयी.. तब मैं पांचवी कक्षा में था और कारगिल युद्ध चल रहा था.
    तब इस कविता ने मेरे बाल मन पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा..हालांकि मूल कविता मुझे समझ नहीं आती थी लेकिन रेडियो पर इसका अनुवाद भी सुनने को मिला था.

    आभार

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  2. वाह बहुत सुन्दर और गहरी बात!!
    साहिर साहब कितनी आसानी से कह जाते थे अपने गीत ओ नज्मों में जो बाते वो समय कितना भी बदल जाय पर बात शाश्वत रहती है।

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  3. इसलिए ऐ शरीफ इंसानों ,
    जंग टलती रहे तो बेहतर है !
    आप और हम सभी के आँगन में,
    शमा जलती रहे तो बेहतर है
    बहुत सुंदर रचना 👌

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-10-2018) को "जय जवान-जय किसान" (चर्चा अंक-3112) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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