उलझ रहा जितना जीवन में, पल पल उतना सुलझ रहा हूँ
अहा! उलझन तुम हो धन्य
तुमसे प्रिय है न कोई अन्य
पग पग पर काँटों को सजा
फूलों का पुंज लिए विकल
लगती कुरूप हो वेदना सी
मगर अंतस सुंदर सकल
कंचन सम तन निखर रहा, तुम संग जितना सुलग रहा हूँ
उलझ रहा जितना जीवन में, पल पल उतना सुलझ रहा हूँ
यह भी कृपा रही तिहारी
रिश्तों की वह चार दीवारी
एक पल में ही जान गया
कौन अपना कौन पराया
कौन पथ का सच्चा साथी
कौन भीतर गरल समाया
मोती सारे बन गए आँसू, तव आँचल जितना सुबक रहा हूँ
उलझ रहा जितना जीवन में, पल पल उतना सुलझ रहा हूँ
पौरुष की पहचान जान ली
तन की सारी ख़ाक छान ली
तुम न होती तो कैसे में
ख़ुद को ही पहचान पाता
तुम बिन कैसे? बोलो! मैं
अपनी जय के गान गाता
नव पल्लव सा पनप रहा, तव रश्मि जितना झुलस रहा हूँ
उलझ रहा जितना जीवन में, पल पल उतना सुलझ रहा हूँ
-राम लखारा "विपुल"
तुम न होती तो कैसे में
ReplyDeleteख़ुद को ही पहचान पाता
तुम बिन कैसे? बोलो! मैं
अपनी जय के गान गाता
वाह शानदार रचना
पग पग पर काँटों को सजा
ReplyDeleteफूलों का पुंज लिए विकल
लगती कुरूप हो वेदना सी
मगर अंतस सुंदर सकल
सत्य कथन सुन्दर रचना
वाह बहुत सही सार्थक रचना ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-10-2018) को "माता के नवरात्र" (चर्चा अंक-3120) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
वाह सुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन डाकिया डाक लाया और लाया ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteAapka Hardik Aabhar meri kavita ko sthan dene ke liye.
ReplyDelete-Ram Lakhara 'Vipul'