जीवन में आई बाधाएँ
हमको नाच नचाती हैं,
सुलझ न पाए गुत्थी कोई
उलझन ये बन जाती हैं।
असमंजस का भाव जगातीं
दिल को ये भटकाती हैं,
मृग शावक से चंचल मन को
व्याकुल ये कर जाती हैं।
रिश्तों के कच्चे धागों में
उलझ गाँठ पड़ जाती हैं,
हस्त लकीरें भेद छिपातीं
उलझन फिर कहलाती हैं।
बीच भँवर में डोले कश्ती
मंज़िल नज़र न आती है,
व्यवधानों से घिर जाने पर
हिम्मत साथ निभाती है।
जीवन पथ पर उलझन सारी
भूल भुलैया बन जाती हैं,
धैर्य धरित सन्मार्ग चलाती
सुबुद्धि राह दिखाती है।
उलझन से घबराना कैसा
शक्ति हमें बतलाती है,
जो मन जीता वो जग जीता
कर्मठता सिखलाती है।
-डॉ. रजनी अग्रवाल 'वाग्देवी रत्ना'
डॉ. रजनी अग्रवाल “रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी(मो.-9839664017)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-10-2018) को "जीवन से अनुबन्ध" (चर्चा अंक-3124) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/10/blog-post_82.html
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
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