तुम्हारे बिना आरती का दिया यह,
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
भटकती निशा कह रही है कि तम में
दिये से किरन फूटना ही उचित है,
शलभ चीखता पर बिना प्यार के तो
विधुर सांस का टूटना ही उचित है,
इसी दर्द में रात का यह मुसाफ़िर,
न रुक पा रहा है, न चल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया यह,
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
मिलन ने कहा था कभी मुस्करा कर,
हँसो फूल बन, विश्व-भर को हंसाओ
मगर कह रहा है, विरह अब सिसक कर,
इसी से नयन का विकल जल-कुसुम यह,
न झर पा रहा है, न खिल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया यह,
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
कहाँ दीप है जो किसी उर्वशी की
किरन-उंगलियों को छुए बिना जला हो?
बिना प्यार पाए किसी मोहिनी का
कहां है पथिक जो निशा में चला हो!
अचंभा अरे कौन फिर जो तिमिर यह
न गल पा रहा है, न ढल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया यह,
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
किसे है पता धूल के इस नगर में,
कहाँ मृत्यु वरमाल ले कर खड़ी है?
किसे ज्ञात है प्राण की लौ छिपाए
चिता में छुपी कौन सी फुलझड़ी है?
इसी से यहां राज़ हर ज़िन्दगी का
न छुप पा रहा है, न खुल पा रहा है,
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया यह,
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
-गोपाल दास नीरज
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-10-2018) को "सुनाे-सुनो! पेट्रोल सस्ता हो गया" (चर्चा अंक-3116) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति