Thursday, June 14, 2018

एक बूंद का आत्म बोध....कुसुम कोठारी



पयोधर से निलंबित हुई
अच्युता का भान एक क्षण
फिर वो बूंद मगन अपने मे चली
सागर मे गिरी
पर भटकती रही अकेली
उसे सागर नही
अपने अस्तित्व की चाह थी

महावीर और बुद्ध की तरह
वो चली निरन्तर
वीतरागी सी
राह मे रोका एक सीप ने 
उस के अंदर झिलमिलाता
एक मोती बोला
एकाकी हो कितनी म्लान हो,
कुछ देर और
बादलों के आलंबन मे रहती
मेरी तरह स्वाती नक्षत्र मे
बरसती तो देखो
मोती बन जाती
बूंद ठिठकी
फिर लूं आलंबन सीप का !!
नही मुझे अपना अस्तित्व चाहिये
सिद्ध हो विलय हो जाऊं एक तेज मे।

कहा उसने.... 
बूंद हूं तो क्या
खुद अपनी पहचान हूं 
मिल गई गर समुद्र मे क्या रह जाऊंगी
कभी मिल मिल बूंद ही बना सागर 
अब सागर ही सागर है,बूंद खो गई
सीप का मोती बन कैद ही पाऊंगी 
निकल भी आई बाहर तो   
किसी गहने मे गूंथ जाऊंगी
मै बूंद हूं स्वयं अपना अस्तित्व
अपनी पहचान बनाऊंगी। 
-कुसुम कोठारी

10 comments:

  1. वाह!!कुसुम जी ,बहुत खूबसूरत लिखा आपनें ..
    बूँद हूँ स्वयं अपना अस्तित्व ,अपनी पहचान बनाऊँगी ....वाह!!बहुत ही उम्दा ।

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    1. शुभा जी आपका अंतर हृदय से आभार आपकी सराहना लेखन को सार्थकता देती है।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-06-2018) को "लोकतन्त्र में लोग" (चर्चा अंक-3002) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. जी आदरणीय मेरी रचना को लोकतंत्र मे स्थान देने के लिये आपका अतुल्य आभार, मै चर्चा पर अवश्य आऊंगी।

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व रक्तदान दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  4. वाह मीता वाह स्व से स्व की यात्रा आध्यात्म पथ गमन

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    1. सस्नेह आभार मीता ।
      भावों पर विशेष तवज्जो देने के लिये शुक्रिया ।

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  5. वाह वाह दीदी सी सुंदर ज्ञानवर्धक रचना है

    "मिल गई गर समुद्र मे क्या रह जाऊंगी
    कभी मिल मिल बूंद ही बना सागर
    अब सागर ही सागर है,बूंद खो गई
    सीप का मोती बन कैद ही पाऊंगी
    निकल भी आई बाहर तो
    किसी गहने मे गूंथ जाऊंगी
    मै बूंद हूं स्वयं अपना अस्तित्व
    अपनी पहचान बनाऊंगी। "

    बूँद अपने अस्तित्व को स्थापित करने के सफ़र में कितनी बड़ी बात कह गयी
    मोती बनने की ख्वाहिश तो हर बूँद की होती है पर मोती से अलग अपनी एक पहचान पाना
    वाह कोई सानी नही आपकी इस रचना है
    नमन आपके विचारों को
    शुभ रात्रि शुभ स्वप्न 🙇

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  6. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १८ जून २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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