मैंने अनजाने ही भीगे बादलों से पूछा
छुआ तुमने क्या
उस सीप में मोती को
बादलों ने नकारा उसे
बोले दुहरी है अनुभूति मेरी
बहुत सजल है सीप का मोती
मेरा सोपान नहीं
स्वप्न नहीं
अपने में एक गिरह लिए रहता है
समुद्र का शोर लिए रहता है
मैं छू भी लूँ उसको
तो भी वो अपने अस्तित्व लिए रहता है
कथन हो या कहानी वो
एक पात्र बना रहता है
अँजुलि भर पी भी लूँ
तो भी वो एक मरुस्थल बना रहता है
यह वो एकाकी है जो मुझे छूती है
मुझे नकार मुझे ही अपनाती है
सीप में मोती बन स्वाति नक्षत्र को दमका जाती है
मेरा ही पात्र बन मुझे ही अँगुलि भर पानी पिला जाती है
इसी गरिमा को अपना मुझे ही छू जाती है।
मैं यही अनुभूति लिए
नकारते हुए अपनाते हुए
भीगते हुए बहते हुए
सीप में ही मोती बन जाती हूँ।
- रजनी भार्गव
मूल रचना
बहुत ही भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteउम्दा रजनी जी
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-06-2018) को "कलम बना पतवार" (चर्चा अंक-3000) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, रजनी दी।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व बालश्रम निषेध दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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