निशब्द, निशांत, नीरव, अंधकार की निशा में
कुछ शब्द बनकर मन में आ जाए,
जब हृदय की इस सृष्टि पर
एक विहंगम दृष्टि कर जाए
भीगी पलकें लिए नैनों में रैना निकल जाए
विचार-पुष्प पल्लवित हो
मन को मगन कर जाए
दूर गगन छाई तारों की लड़ी
जो रह-रह कर मन को ललचाए
ललक उठे है एक मन में मेरे
बचपन का भोलापन
फिर से मिल जाए
मीठे सपने, मीठी बातें,
था मीठा जीवन तबका
क्लेश-कलुष, बर्बरता का
न था कोई स्थान वहां
थे निर्मल, निर्लिप्त द्वंदों से,
छल का नामो निशां न था
निस्तब्ध निशा कह रही मानो मुझसे ,
तू शांति के दीप जला, इंसा जूझ रहा
जीवन से हर पल उसको
तू ढांढस बंधवा निर्मल कर्मी बनकर
इंसा के जीवन को
फिर से बचपन दे दे जरा
-पुष्पा परजिया
बेहद हृदयस्पर्शी👌👌
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 26/06/2018
को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
ReplyDeleteमार्मिक रचना ..यादों को पुनि याद दिलाती !
👌👌👌👌👌
काव्य भाव बचपन स्पंदन हिय भागे फिर यहाँ वहाँ
पर कहाँ पकड़ आता है सखी री छूट गया जो यहाँ वहाँ
भावों का सुंदर समन्वय, गये बचपन का भोलापन और विश्व उत्थान की सुंदर भावना बच्चों सम निश्छल।
ReplyDeleteवाह रचना।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-06-2018) को "मन मत करो उदास" (चर्चा अंक-3013) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादगी और दिल के तारों को छूती हुयी गुज़र जाती है ये लाजवाब रचना ...
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