उनकी जो आई याद तो आती चली गई
दिल में हज़ारों ख़्वाब वो लाती चली गई
मासूम आँखों में कोई तो राज़ था निहां
नग़मा कोई भूला सा दोहराती चली गई
जब भी मिलन उनसे हुआ तो आ गई ख़ुशी
उनकी जुदाई ग़म बहुत ढाती चली गई
जब -जब भी आई याद है रुख़्सत की वो घड़ी
नश्तर मेरे सीने में गहराती चली गई
रहते हैं मेरे साथ वो हर दम ख़लिश कि यूँ
रूह रास्ता सहरा में दिखलाती चली गई.
बहर --- २२१२ २२१२ २२१२ १२
-महेश चन्द्र गुप्त 'ख़लिश'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-06-2018) को "मौमिन के घर ईद" (चर्चा अंक-3003) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तूति, यशोदा दी।
ReplyDelete