उम्मीद-ए-वफ़ा की फितरत से शर्मिंदा हूँ मैं,
ग़ज़ब कि दगा के हादसों के बाद ज़िंदा हूँ मैं,
मुहब्बत से ऐतबार उठ गया अच्छे-अच्छों का,
शिकस्त से हौसले आज़माने वाला चुनिंदा हूँ मैं,
बिक गए ईमान जहाँ और गिरवी पड़ी ज़िन्दगी,
चकाचौंध वाले शहर का अदना बाशिंदा हूँ मैं,
इक पाक-साफ़ रूह की मलकियत रखता हूँ,
ज़हनी लाशों के शहर का वहशी दरिंदा हूँ मैं,
शोहरत के आसमानों में वो परवाज़ दूर तलक,
ख़्वाबों के पंख समेटे ज़मीं पे उतरा परिंदा हूँ मैं,
मासूम इतना नहीं की तन्हाइयों में ग़ुम हो जाऊँ,
बचपन से अम्मी कहती आफतों का पुलिंदा हूँ मैं,
'दक्ष' सोने दो अब तो, इक उमर का उनिंदा हूँ मैं,
साँसों से चलने वाली इस मशीन का कारिंदा हूँ मैं
- विकास शर्मा 'दक्ष'
जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 05/06/2018 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
उम्दा गजल ।
ReplyDeleteवाह!!लाजवाब!
ReplyDeleteबेहतरीन उन्वान ....👌👌👌👌
ReplyDeleteएक उम्र का उनिंदा हूँ .....👍👍👍👍👍
सांसों की चलती इस मशीन का
क्या कोई एतबार करें
पल में तोला पल में माशा
शर्मिंदा बीच बाजार करें !
नमन
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-06-2018) को "हो जाता मजबूर" (चर्चा अंक-2992) (चर्चा अंक-2985) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत लाजवाब शेर हैं ग़ज़ल के ... बहुत ख़ूब ...
ReplyDeleteहर शेर शानदार है रचना का | बहुत ही सुंदर रचना आदरणीय | सादर --
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