अपने बचपन का सफ़र याद आया
मुझको परियों का नगर याद आया
जो नहीं था कभी मेरा अपना
क्यूँ मुझे आज वो घर याद आया
कोई पत्ता न हिले जिसके बिना
रब वही शामो ए सहर याद आया
इतना शातिर वो हुआ है कैसे
है सियासत का असर याद आया
रोज़ क्यूँ सुर्ख़ियों में रहता है
है यही उसका हुनर याद आया
जब कोई आस ही बाकी न बची
मुझको बस तेरा ही दर याद आया
उम्र के इस पड़ाव पे आकर
क्यूँ जुदा होने का डर याद आया
माँ ने रखा था हाथ जाते हुए
फिर वही दीदे ए तर याद आया
जिसकी छाया तले किरण थे सब
घर के आँगन का शजर याद आया।
-ममता किरण
बचपन और पुराने एहसासों की यादों का सुंदर सफर
ReplyDeleteबचपन की अद्भुत स्मृतियाँ, सुंदर रचना 🙏
ReplyDeleteबचपन के प्यारे दिन भुलाये न भूले हम
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-07-2018) को "करना मत विश्राम" (चर्चा अंक-3018) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर रचना बचपन की यादें ताजा हो गईं
ReplyDeleteउम्र के इस पड़ाव पे आकर
ReplyDeleteक्यूँ जुदा होने का डर याद आया... बहुत सुंदर
बहुत सुन्दर
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