प्यास......पारुल "पंखुरी"
प्यासी हूँ
मन के सहरा में
भटकते भटकते
मरूद्यान तक पहुँची
मगर नीर नमकीन हो गया
मेरे आँसुओं ने साझेदारी
कर ली
उस उदास झील से,
और भटकूँगी
भटकना चाहती हूँ
तब तक
जब तक
तेरे हाथों से वो पानी
झरना बन के
मुझे भिगो न दे
तभी तृप्त होगी
तन, मन और आत्मा।
-पारुल "पंखुरी"
अनुजा पारुल "पंखुरी" को समर्पित
ReplyDeleteमृग तृष्णा सी मत भटको
सुनो मरु उध्यान मे
पंख लगा कर उड़ो पंखुरी
आज उड़ो आकाश मे
पंख लगा कर उड़ी कल्पना
कभी सुनो आकाश मे
आज अमर है इतिहासो मे
सारे भारत ओ संसार मे
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (25-02-2018) को "आदमी कब बनोगे" (चर्चा अंक-2892) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
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