Tuesday, February 13, 2018

एक नन्ही सी नाजुक-नर्म कविता .....स्मृति आदित्य


रोज ही 
एक नन्ही सी 
नाजुक-नर्म कविता 
सिमटती-सिकुड़ती है 
मेरी अंजुरि में..
खिल उठना चाहती है 
किसी कली की तरह...
शर्मा उठती है 
आसपास मंडराते 
अर्थों और भावों से..
शब्दों की आकर्षक अंगुलियां 
आमंत्रण देती है 
बाहर आ जाने का. ..
नहीं आ पाती है 
मुरझा जाती है फिर 
उस पसीने में, 
जो बंद मुट्ठी में 
तब निकलता है 
जब जरा भी फुरसत नहीं होती 
कविता को खुली बयार में लाने की...
कविता.... 
लौट जाती है 
अगले दिन 
फिर आने के लिए... 
बस एक क्षण 
केसर-चंदन सा महकाने के लिए....
-स्मृति आदित्य

2 comments:

  1. कविताओं के नाजुक मिज़ाज का बड़ा व्यवहारिक वर्णन किया है आपने ।शुभकामनाएँ।

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  2. बहुत सुंदर रचना👌

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