गिला-औ-शिकवा रहा नहीं है
मलाल फिर भी गया नहीं है
तलाश उसकी हुई न पूरी
नदी को सागर मिला नहीं है
बुला के मुझको किया जो रुसवा
ये बज़्म की तो अदा नहीं है
ये तो मुहब्बत लगी अलामत
अलील दिल की दवा नहीं है
गुलों के जैसे जिओ खुशी से
के ज़िंदगी का पता नहीं है
ग़रूर दौलत प किस लिए हो
ये धन किसी का सगा नहीं है
शरर ये नफरत का किसने फेंका
जो आज तक भी बुझा नहीं है
किसी को शीशा दिखा रहा जो
वो दूध का खुद धुला नहीं है
उलाहना दूं उसे जो निर्मल
यही तो मुझसे हुया नहीं है
- निर्मला कपिला
वाह
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteसरस सुक्तियों सा काव्य ।
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
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गुरूवार 15 फरवरी 2018 को प्रकाशनार्थ 944 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
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सधन्यवाद।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत खूब !!!!!!!!!! आदरणीय निर्मला जी -- बहुत अच्छी गजल लिखी आपने | सादर --------
ReplyDeleteसुंदर !
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