उग आते हैं
तुम्हारे मन–मस्तिष्क के
उन गीले
कोनों पर
जहाँ भी
हल्की-सी सीलन है।
वहाँ पनप जाते है वो
तुम्हारे भीतर
तब तुम्हें
उनकी ही तरह
सही लगता है
किसी एक रंग को ही
सारे रंगो से फीका कहना।
गुमान लगता है तुम्हें
भूखे पेट भी
मंदिर मस्जिद का
नारा लगाना।
नही चुभते है तब तुम्हारे
कोमल हृदय में
कैक्टस के सख़्त काँटे भी
आख़िर जगह दी थी
तुमने ही..।
वो उग आये
मन–मस्तिष्क के
गीले कोनों पर
जहाँ हल्की-सी भी
सीलन रहती रही।
- शंकर सिंह परगाई
अच्छा है
ReplyDeleteवाह
आभार
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-02-2018) को 'रेप प्रूफ पैंटी' (चर्चा अंक-2876) (चर्चा अंक-2875) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार महोदय
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteआभार
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर
सादर
बहुत बहुत आभार मान्यवर
ReplyDelete