हुई अंजुमन मे आपकी रात आधी !
रह गई मुलाकात आधी बात आधी!!
हाथ जो बढ़ाया हमने खफा हो गये!
महफिल से हुई रूखसत बारात आधी!!
नजरे उठायी जो बहकने लगे कदम!
खता हो गई थी चांदनी रात आधी!!
करवट बदलते ही सहर हो गई साहिब !
करार आया कहां था थी बात आधी!!
फिर मिलने का वादा करके चले वो!
रो रही थी हर कली कायनात आधी!!
मुड़कर जो देखा मुझे करार आ गया !
कह गये वो मेरी हर सौगात आधी!!
यादें है अब पास उनकी मेरे रहबर !
फाड़ दी तस्वीर तहरीर किताब आधी !!
रो रोकर जीते है गैरों की महफिल में !
होती रही तुमसे अक्सर मुलाकात आधी !!
मुमकिन कहां है अब मक्का-मदीना!
पहुंचती रही हर बार मेरी आवाज आधी !!
-प्रीती श्रीवास्तव
फिर मिलने का वादा करके चले वो!
ReplyDeleteरो रही थी हर कली कायनात आधी!!
.......सुभान अल्लाह!
बहुत खूब।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-010-2017) को
ReplyDelete"जन-जन के राम" (चर्चा अंक 2744)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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विजयादशमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
बेहद खूबसूरत गज़ल .
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteBahut khubsurat ghazal Preeti ji.
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