तुहिन सेज पर ठिठुर-ठिठुर कर
निशा काल के प्रथम प्रहर में
बैठा एक पथिक अंजाना
था तीब्र प्रकम्पित हिमजल में
तभी प्रात की स्वर्णिम किरणें
लगी मचलने व्योंम प्राची पर
हाथ पसारे निस्सीम तेज ले
लगी उतरने हिम छाती पर
रज सुरभित आलोक उड़ाता
हिम- शैलों पर भर अनुराग
मृदुल अनंग नित क्रीड़ा करता
भर- भर बाँहों में प्रेम- पराग
निद्रा भंग हुई शैवालों की
हिम-चादर गल लगी पिघलने
धवल धरा के आँगन में
हरियाली उग लगी बिहसनें
स्वांस सुगन्धित लगी मचलने
पवन हुआ सुरभित गतिमान
प्रात काल की लाली बिखरी
शीर्ष शिखर पंहुचा दिनमान
रह - रह नेत्र निमीलन करती
बार- बार सोने को मचलती
कल-कल निनाद के महारोर में
स्नेह की बाती जल-जल बुझती
वाह्ह्ह....लाज़वाब👌👌
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-09-2017) को "चमन का सिंगार करना चाहिए" (चर्चा अंक 2723) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
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