जरा सी देर सही घर अगर गये होते
तेरे ही सीने से लग के निखर गये होते।
नहीं भूली हूँ जुदाई की शाम अब तक भी
जो भूले से भूल जाते बिखर गये होते।
अभी नहीं जो होता रूह से रूह का मिलना
तो इस जनम में दुबारा ठहर गये होते।
तेरा कभी तो सहारा होता तन्हाई में
तो हम भी शाम ढले अपने घर गये होते।
यूँ मन मेरा भी तो अटका रहा ख़्वाहिशों में
नहीं तो रूह छूकर "नीतू" ग़ुजरे गये होते।
-नीतू राठौर
वाह
ReplyDeleteक्या बात है "भूल जाते तो बिखर गए होते"
बहुत उम्दा!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21 - 09 - 2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2734 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत सुंदर लिखा है !
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