Thursday, September 28, 2017

सोच रहा है इतना क्यूँ .......शाहीद कमाल

सोच रहा है इतना क्यूँ ऐ दस्त-ए-बे-ताख़ीर निकाल
तू ने अपने तरकश में जो रक्खा है वो तीर निकाल 

जिस का कुछ अंजाम नहीं वो जंग है दो नक़्क़ादों की 
लफ़्ज़ों की सफ़्फ़ाक सिनानें लहजों की शमशीर निकाल 

आशोब-ए-तख़रीब सा कुछ इस अंदाम-ए-तख़्लीक़ में है 
तोड़ मिरे दीवार-ओ-दर को एक नई ता'मीर निकाल 

चाँद सितारों की खेती कर रात की बंजर धरती पर 
आँख के इस सूखे दरिया से ख़्वाबों की ताबीर निकाल 

तेरे इस एहसान से मेरी ग़ैरत का दम घुटता है 
मेरे इन पैरों से अपनी शोहरत की ज़ंजीर निकाल 

रोज़ की आपा-धापी से कुछ वक़्त चुरा कर लाए हैं 
यार ज़रा हम दोनों की इक अच्छी सी तस्वीर निकाल 

'शाहिद' अब ये आलम है इस अहद-ए-सुख़न-अर्ज़ानी का 
'मीर' पे कर ईराद भी उस पे 'ग़ालिब' की तफ़्सीर निकाल 
- शाहीद कमाल

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-09-2017) को
    "अब सौंप दिया है" (चर्चा अंक 2742)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 02 अक्टूबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"

    ReplyDelete
  3. सुंदर अभिव्यक्ति !

    ReplyDelete