
काश कि
हम लौट सकें
अपनी उन्ही जड़ों की ओर
जहाँ जीवन शुरू होता था
परम्पराओं के साथ
और फलता फूलता था
रिश्तों के साथ
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मधुर मधुर मद्धम मद्धम
पकता था
अपनेपन की आंच में
मैं-मैं और-और की
भूख से परे
जिन्दा रहता था
एक सम्पूर्णता
और संतुष्टि के
अहसास के साथ
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बहुत सुंदर भाव,टीस खोते मूल्यों की व्यक्त करती रचना।
ReplyDeleteनोस्टाल्जिया !!!
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteबढ़िया !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-09-2017) को "कैसा हुआ समाज" (चर्चा अंक 2722) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
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