काश कि
हम लौट सकें
अपनी उन्ही जड़ों की ओर
जहाँ जीवन शुरू होता था
परम्पराओं के साथ
और फलता फूलता था
रिश्तों के साथ
**
मधुर मधुर मद्धम मद्धम
पकता था
अपनेपन की आंच में
मैं-मैं और-और की
भूख से परे
जिन्दा रहता था
एक सम्पूर्णता
और संतुष्टि के
अहसास के साथ
**
-
बहुत सुंदर भाव,टीस खोते मूल्यों की व्यक्त करती रचना।
ReplyDeleteनोस्टाल्जिया !!!
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteबढ़िया !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDelete