मिट्टी से मशविरा न कर, पानी का भी कहा न मान
ऐ आतिश-ए-दुरुं मेरी, पाबंदी-ए-हवा न मान
हर एक लुग़त से मावरा मैं हूँ अजब मुहावरा
मेरी ज़बान में पढ़ मुझे, दुनिया का तर्जुमा न मान
होने में या न होने में मेरा भी कोई दखल है?
मैं हूँ ये उसका हुक्म है, इसको मेरी रज़ा न मान
टूटे हैं मुझ पे क़हर भी, मैंने पिया है ज़हर भी
मेरी ज़ुबाने तल्ख़ का इतना भी बुरा न मान
बस एक दीद भर का है, फिर तो ये वक़्फ़ए-हयात
उनके क़रीब जा मगर आँखों की इल्तिजा न मान
हर शाख ज़र्द ज़र्द है, हर फूल दर्द दर्द है
मुझ में ख़िज़ाँ मुक़ीम है, मुझको हरा भरा न मान
ज़ेब-ए-तन और कुछ नहीं, जुज़ तेरी आरज़ू के अब
तू भी मुहाल है तो फिर मुझ पर कोई क़बा न मान
-अभिषेक शुक्ला
वाह।
ReplyDeleteवाह्ह... लाज़वाब👌
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-09-2017) को
ReplyDelete"हिन्दी से है प्यार" (चर्चा अंक 2729)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक