तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हें हर जगह खोजा
अलार्म की आवाज़ में..
छौंक की गंध में..
रामचरितमानस के पाठ में..
हर दर्द की दवा में..
बाबा के किस्सों में..
भाई की आंखों में
बेटे की मुस्कान में..
हर जगह थोड़ा थोड़ा पाया तुम्हें...
और उस रोज अचानक तुम मुझे समूची मिलीं
जब मैंने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी
बड़ी सी लाल बिन्दी लगाई
हाथ भर चूड़ियाँ पहनी
माँग भर सिंदूर लगाया
और जैसे ही आईने के सामने खड़ी हुई
खिड़की से एक सूर्य किरण
मेरे मुख पर बिखर
मुझे दीपदीपा गई...
तुम बिलकुल ऐसी ही थीं
उजली और देदीप्यमान...
~निधि सक्सेना
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-09-2017) को
ReplyDelete"कहीं कुछ रह तो नहीं गया" (चर्चा अंक 2726)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
माँ को इंसान कभी नही भूल सकता। सुंदर प्रस्तुति।
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