Tuesday, April 22, 2014

फूलों का सवेरे से बदन टूट रहा है ........सचिन अग्रवाल



चेहरों पे जो बिखरी है शिक़न, टूट रहा है
अच्छा है अदावत का चलन टूट रहा है

किसकी थी महक़ रात वो गुलशन में अलग सी
फूलों का सवेरे से बदन टूट रहा है

फिर प्रीत पे भारी हैं ज़माने के मसाइल
फिर लौट के आने का वचन टूट रहा है

एक शख्स से बरसों में मुलाक़ात हुई है
जारी है हंसी होठों पे, मन टूट रहा है 

'नए मरासिम' में प्रकाशित
-सचिन अग्रवाल

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