वो तो अब महल नही पहरे देखती है ,
ये दुनिया है दिल नही चेहरे देखती है ,
भले ही फुटपाथ पर सोती है वो आँख ,
लेकिन ख्वाब वो भी सुनहरे देखती है,
ये दुनिया है दिल नही चेहरे देखती है ,
भले ही फुटपाथ पर सोती है वो आँख ,
लेकिन ख्वाब वो भी सुनहरे देखती है,
वो तो अब महल नही पहरे देखती है ,
ये दुनिया है दिल नही चेहरे देखती है ,
भले ही फुटपाथ पर सोती है वो आँख ,
लेकिन ख्वाब वो भी सुनहरे देखती है,
पता है वक़्त उनके घर से निकलने का,
सारी दुनिया नाज़नीन के नखरे देखती है ,
वो भी इश्क करती है पर डरती है बहुत ,
पगली है वो मंजिल नही खतरे देखती है ,
पढ़ लेती मेरी आँखों कि मायूसी को भी ,
वो मेरी माँ है जो इतने गहरे देखती है ,
गंदी बस्तियों में भी कुछ सितारे रहते है ,
तेरी अमीरी है जो इनमे कचरे देखती है ,
-प्रकाश सिंह बघेल ''बाबा''
प्राप्ति स्रोतः ग़ज़ल संध्या
https://www.facebook.com/GazalaSandhya?ref=hl
https://www.facebook.com/GazalaSandhya?ref=hl
-सुंदर रचना...
ReplyDeleteआपने लिखा....
मैंने भी पढ़ा...
हमारा प्रयास हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना...
दिनांक 21/04/ 2014 की
नयी पुरानी हलचल [हिंदी ब्लौग का एकमंच] पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...
आप भी आना...औरों को बतलाना...हलचल में और भी बहुत कुछ है...
हलचल में सभी का स्वागत है...
बहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteBaghela jee bahut sunder rachana
ReplyDeleteवाह .....
ReplyDeleteKya bat!!!
ReplyDeleteगंदी बस्तियों में भी कुछ सितारे रहते है ,
ReplyDeleteतेरी अमीरी है जो इनमे कचरे देखती है
सुन्दर प्रस्तुति