मुझे वह समय याद है-
जब धूप का एक टुकड़ा
सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता
सोचती हूं- सहम का
और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोए बच्चे ने
मेरा हाथ थाम लिया
तु कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है
एक नन्हा-सा गर्म सांस
न हाथ से बहलता है,
न हाथ छोड़ता है
अंधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी
एक खोमोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह
जैसे धूप का एक टुकड़ा....
-अमृता प्रीतम
जन्म: 31 अगस्त 1919.
निधन: 31 अक्तूबर 2005.
जन्म स्थान: गुजरांवाला पंजाब.
1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज सोमवार (14-04-2014) के "रस्में निभाने के लिए हैं" (चर्चा मंच-1582) पर भी है!
बैशाखी और अम्बेदकर जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह ।
ReplyDeleteवाह ! क्या बात है ! आज की सुबह अमृता जी की इतनी बेहतरीन रचना से शुरू करवाने के लिये शुक्रिया यशोदा जी !
ReplyDeleteअमृताजी की इस सुंदर कविता पढवानेे का दन्.वाद।
ReplyDeleteअमृता जी की सुंदर कविता प्रस्तुति के लिए बहुत धन्यवाद ..
ReplyDeleteलाजवाब रचना
ReplyDeleteसादर
खूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteis khoobsurat kriti ko sanjha karne ke liye abhaar Yashoda ji
ReplyDeletejitne khubsurti se amrita aap sabdon se bhawnaon ko abhiwyakta krti ,mano aap jaisa koi nhi.
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