Friday, October 4, 2013

मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ.................अहमद नदीम क़ासमी


फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आंखो को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूं

हक़ की बात कहूंगा मगर ऐ जुर्रत-ऐ- इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूं

हर सोच पे खंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैरां हूं कि सोचूं तो किस अंदाज़ में सोचूं

आंखे तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूं

चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़ामोशां में खड़ा हूं

सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाजों के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ

मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ

-अहमद नदीम क़ासमी

हक़ः सच, जुर्रत-ए- इज़हारः अभिव्यक्ति का साहस, बर्फ़-से पैकरः आकृति, 
लौहें: पत्थर के टुकड़े सलीब लिखकर क़ब्र में लगाते हैं,
शहरे-ख़ामोशां: क़ब्रिस्तान, दस्त-ए-मुसीबतः मुसीबत का जंगल, 
इज़्नः इज़ाज़त

यह रचना मुझे दैनिक भास्कर के रसरंग पृष्ट से प्राप्त हुई

2 comments:

  1. हर सोच पे खंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
    हैरां हूं कि सोचूं तो किस अंदाज़ में सोचूं

    सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाजों के पुर्ज़े
    यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ
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    बेहतरीन शेर …. लाज़वाब
    आपका हार्दिक आभार

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