फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आंखो को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूं
हक़ की बात कहूंगा मगर ऐ जुर्रत-ऐ- इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूं
हर सोच पे खंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैरां हूं कि सोचूं तो किस अंदाज़ में सोचूं
आंखे तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूं
चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़ामोशां में खड़ा हूं
सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाजों के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ
मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ
-अहमद नदीम क़ासमी
हक़ः सच, जुर्रत-ए- इज़हारः अभिव्यक्ति का साहस, बर्फ़-से पैकरः आकृति,
आंखो को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूं
हक़ की बात कहूंगा मगर ऐ जुर्रत-ऐ- इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूं
हर सोच पे खंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैरां हूं कि सोचूं तो किस अंदाज़ में सोचूं
आंखे तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूं
चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़ामोशां में खड़ा हूं
सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाजों के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ
मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ
-अहमद नदीम क़ासमी
हक़ः सच, जुर्रत-ए- इज़हारः अभिव्यक्ति का साहस, बर्फ़-से पैकरः आकृति,
लौहें: पत्थर के टुकड़े सलीब लिखकर क़ब्र में लगाते हैं,
शहरे-ख़ामोशां: क़ब्रिस्तान, दस्त-ए-मुसीबतः मुसीबत का जंगल,
इज़्नः इज़ाज़त
यह रचना मुझे दैनिक भास्कर के रसरंग पृष्ट से प्राप्त हुई
हर सोच पे खंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
ReplyDeleteहैरां हूं कि सोचूं तो किस अंदाज़ में सोचूं
सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाजों के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ
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बेहतरीन शेर …. लाज़वाब
आपका हार्दिक आभार
bahut sundar.......
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