Friday, October 18, 2013

फूल पे पांव पड़ें. …छाला हो जाता है................सुबोध साक़ी



अक्सर ही संजोग ऐसा हो जाता है
ख़ुद से मिले भी एक अरसा हो जाता है

मैं बोलूँ तो हंगामा हो जाता है
मैं ख़ामोश तो सन्नाटा हो जाता है

धीरे धीरे दिन धुंधला हो जाता है
मेरे मूड का आईना हो जाता है

रात की गहरी काली नद्दी जाते ही
दिन का पर्वत आ के खड़ा हो जाता है

तेरी याद की शम्में जब बुझ जाती हैं
ज़ेह्न मिरा आसेबज़दा(1) हो जाता है

ये तो बरसों देखा है तहज़ीबों ने
रफ़्ता रफ़्ता डर ही ख़ुदा हो जाता है.

जाने क्यूँ दानिश्वर(2) ऐसा कहते हैं
बढ़ते बढ़ते दर्द दवा हो जाता है

कभी कभी तो याद तिरी आती ही नहीं
कोई-कोई दिन यूं ज़ाया हो जाता है

देखा है इन आँखों ने ये आलम भी
बहता दरिया भी सहरा हो जाता है

ऐसी अदालत में है मेरा केस जहां
हरिक वाक़या अफ़साना हो जाता है

पूछे है वो हाल हमारा कुछ ऐसे
ज़ख्मे – जुदाई और हरा हो जाता है

जी करता है घर में घूमूं नंग-धड़ंग
कभी कभी मन बच्चा सा हो जाता है

आदत है इन तलवों को तो काँटों की
फूल पे पांव पड़ें. …छाला हो जाता है

सुबोध साक़ी 09811535422
_____________
1 भुतहा 2 बुद्धिमान

http://wp.me/p2hxFs-1qE

7 comments:

  1. ऐसी अदालत में है मेरा केस जहां
    हरिक वाक़या अफ़साना हो जाता है
    बहुत खूब

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  2. बहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना........शुभकामनायें ।
    सुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ रचना पढ़कर !

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  3. सुंदर रचना के लिये ब्लौग प्रसारण की ओर से शुभकामनाएं...
    आप की ये खूबसूरत रचना आने वाले शनीवार यानी 19/10/2013 को ब्लौग प्रसारण पर भी लिंक की गयी है...

    सूचनार्थ।

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..

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