दिन सलीके से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ दिन ज़माने से रही
चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसाविर आँखें
ज़िन्दगी रोज तस्वीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमा जलाने से रही
फासला चाँद बना देता है पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक आने से रही
शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फुर्सत
अपनी इज्ज़त भी यहाँ हंसने-हंसाने से रही..
दोस्ती अपनी भी कुछ दिन ज़माने से रही
चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसाविर आँखें
ज़िन्दगी रोज तस्वीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमा जलाने से रही
फासला चाँद बना देता है पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक आने से रही
शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फुर्सत
अपनी इज्ज़त भी यहाँ हंसने-हंसाने से रही..
-निदा फ़ाज़ली
मशहूर श़ाय़र और नग़मा निगार
जन्मः 12 अक्टूबर, 1938
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
मशहूर श़ाय़र और नग़मा निगार
जन्मः 12 अक्टूबर, 1938
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (09-10-2013) होंय सफल तब विज्ञ, सुधारें दुष्ट अधर्मी-चर्चा मंच 1393 में "मयंक का कोना" पर भी है!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut pur sukoon kalaam hai .Aapka Abhaar , punh abhaar !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत प्रस्तुति |
ReplyDeleteमेरी नई रचना :- मेरी चाहत