अब मैं भी बेगुनाह हूँ रिश्तों के सामने
मैंने भी झूठ कह दिया झूठों के सामने
एक पट्टी बाँध रक्खी है मुंसिफ ने आँख पर
चिल्लाते हुए गूंगे हैं बहरों के सामने
मुझको मेरे उसूलों का कुछ तो बनाके दो
खाली ही हाथ जाऊं क्या बच्चों के सामने
एक वक़्त तक तो भूख को बर्दाश्त भी किया
फिर यूँ हुआ वो बिछ गयी भूखों के सामने
वो रौब और वो हुक्म गए बेटियों के साथ
खामोश बैठे रहते हैं बेटों के सामने
मुद्दत में आज गाँव हमें याद आया है
थाली लगा के बैठे हैं चूल्हों के सामने
एक पट्टी बाँध रक्खी है मुंसिफ ने आँख पर
चिल्लाते हुए गूंगे हैं बहरों के सामने
मुझको मेरे उसूलों का कुछ तो बनाके दो
खाली ही हाथ जाऊं क्या बच्चों के सामने
एक वक़्त तक तो भूख को बर्दाश्त भी किया
फिर यूँ हुआ वो बिछ गयी भूखों के सामने
वो रौब और वो हुक्म गए बेटियों के साथ
खामोश बैठे रहते हैं बेटों के सामने
मुद्दत में आज गाँव हमें याद आया है
थाली लगा के बैठे हैं चूल्हों के सामने
सचिन अग्रवाल
सुन्दर रचना .......
ReplyDeleteठीक किया जो झूठ कहा :)
ReplyDeleteसुंदर !
bahut pyari abhivyakti........
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