ना किसी की आंख का नूर हूं ना किसी के दिल का क़रार हूं
जो किसी के काम ना आ सके मैं वो मुश्त-ए-ग़ुबार हूं
मैं नहीं हूं नग़्म-ए-जां-फ़िज़ा, मुझे कोई सुन के करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुखी की पुकार हूं
मेर रंग रूप बिगड़ गया, मेरा बख़्त मुझसे बिछड़ गया
जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ले बहार हूं
पै फ़ातेहा कोई आए क्यूं, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूं
कोई शमा ला के जलाए क्यूं कि मैं बेकसी का मज़ार हूं
ना मैं मुज़तर उनका हबीब हूं, ना मैं मुज़तर उनका रक़ीब हूं
जो पलट गया वह नसीब हूं जो उजड़ गया वह दयार हूं
-मुज़तर ख़ैराबादी
जो किसी के काम ना आ सके मैं वो मुश्त-ए-ग़ुबार हूं
मैं नहीं हूं नग़्म-ए-जां-फ़िज़ा, मुझे कोई सुन के करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुखी की पुकार हूं
मेर रंग रूप बिगड़ गया, मेरा बख़्त मुझसे बिछड़ गया
जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ले बहार हूं
पै फ़ातेहा कोई आए क्यूं, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूं
कोई शमा ला के जलाए क्यूं कि मैं बेकसी का मज़ार हूं
ना मैं मुज़तर उनका हबीब हूं, ना मैं मुज़तर उनका रक़ीब हूं
जो पलट गया वह नसीब हूं जो उजड़ गया वह दयार हूं
-मुज़तर ख़ैराबादी
मरहूम श़ायर ज़नाब मुज़तर ख़ैराबादी [1865-1927]
शायर जनाब जाँनिसार अख़्तर के वालिद थे
और ज़नाब ज़ावेद अख़्तर के दादा हूज़ूर थे
.और ज़नाब ज़ावेद अख़्तर के दादा हूज़ूर थे
बहुत सुन्दर ग़ज़ल । एक दो शब्द समझ नहीं आया ।
ReplyDeleteमेरी नई रचना :- मेरी चाहत
आप की ये खूबसूरत रचना आने वाले शनीवार यानी 12/10/2013 को ब्लौग प्रसारण पर भी लिंक की गयी है...
ReplyDeleteसूचनार्थ।
सुंदर गजल !
ReplyDeletebehtreen gazal...
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