चलते चलते यूँ ही रूक जाता हूँ मैं
कहना चाहूँ जो पर न कह पाता हूँ मैं
उल्फतों का समंदर है हिलोरे खा रहा
भावनाएँ व्यक्त ना कर पाता हूँ मैं
दोस्त दुश्मन बने जिन्दगी की राह पर
अपने पराये न खोज कर पाता हूँ मैं
हार मान लूँ जो यहाँ ये मुनासिब नहीं
पर स्वयं से ही नहीं जीत पाता हूँ मैं
तोड़ दूँ असूलों को यहाँ गवारा नहीं
कायदों पे कभी नहीं टिक पाता हूँ मैं
जो भी मिला राहों में वो दगा दे गया
डंक जहरीलों से नहीं कर पाता हूँ मैं
आस्तीन के सांप से दुनियादारी भरी
राह काट कर भी नहीं चल पाता हूँ मैं
मतलबी दुनिया में कोई भी मीत नहीं
प्रीत की रीत को ना निभा पाता हूँ मैं
सुखविन्द्र ने प्यार में ठोकरें ही खाई
प्रेमपथ पे रसिक नहीं बन पाता हूँ मैं
-सुखविन्दर सिंह मनसीरत
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 05 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteमतलबी दुनिया में कोई भी मीत नहीं
ReplyDeleteप्रीत की रीत को ना निभा पाता हूँ मैं ... लाजवाब ...
आस्तीन के सांप से दुनिया दारी भरी....लाज़बाब पक्तियां।
ReplyDeleteshaandar rachna its amazing keep it up
ReplyDeleteBahot achhi rachna
ReplyDelete