मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
-दुष्यन्त कुमार
एक जंगल है तेरी आँखों में
ReplyDeleteमैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
वाह!!! अमर रचना👌👌कोटि आभार🙏🙏🌷🌷
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
ReplyDeleteमैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
वाह! वाह!! और सिर्फ़ वाह!!!
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 27 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteमधुर भावनाओं को सजाती हुई खूबसूरत रचना
ReplyDeleteसच में कालजयी रचना
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteबहुत सुंदर...दुष्यंत कुमार मेरे मनपसंद साहित्यकार
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