आईन तो हम रोज़ बदल सकते हैं
अख़लाक़ में तरमीम नहीं हो सकती
हम रोज़ नए मुल्क बना सकते हैं
तहज़ीब की मगर तक़सीम नहीं हो सकती
साहिर की जुबां, ज़ार की बोली मेरी
साएल ने सिखाया है अदब का असलूब
कैफ़ी से तलम्मुज़ का शरफ़ रखता हूँ
उर्दू के सिवा कुछ नहीं मुझे मतलूब
नाकर्दा गुनाहों की जज़ा जब देगा
मांगूंगा सर-ए-हश्र, खुदा से उर्दू
गुलज़ार, आबरू ए ज़बाँ अब हमीं से है
दिल्ली में अपने बाद ये लुत्फ़-ए-सुखन कहाँ!
-गुलज़ार देहलवी
7 July 1926 – 12 June 2020
वाह! बहुत उम्दा! यदि उर्दू शब्दों के अर्थ नीचे लिख दिए जाएँ तो पढ़ने का आनंद बहुगुणित हो जाएगा। आभार!!!!
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3736
ReplyDeleteमें दिया गया है। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
वाह! भावपूर्ण गजल। इस शेर का तो आनंद ही अलग है ---
ReplyDeleteगुलज़ार, आबरू ए ज़बाँ अब हमीं से है
दिल्ली में अपने बाद ये लुत्फ़-ए-सुखन कहाँ!
वाह !!गुलजार साहेब वाह!!! 🙏🙏🙏
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ReplyDeleteउर्दू का प्रशस्तिगान और समर्पित लोग रहेंगे तो उर्दू का अस्तित्व कभी धुंधलायेगा नही। नमन आदरणीय🙏🙏🌷🌷
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