तनिक ठहरो
रुको तो
देखो साड़ी में पायल उलझ गई
कि दायित्व में अलंकार उलझ गए
संस्कारों में व्यथा उलझ गई..
कल भी ऐसा ही हुआ था
कल भी पुकारा था तुम्हें
कल भी तुम न रुके..
सुनो ये वही पायल हैं
जो मैंने भांवरों में पहनी थी
ये साक्षी हैं तुम्हारे उस वचन की
कि तुम मुझे अनुगामिनी नहीं
सखा स्वीकारोगे..
तुम मेरे स्वामी नहीं
मित्र बनोगे..
अब यहां आओ
और इसे सुलझाओ
सुलझाओ कि मैं
तुम्हारे दायित्वों को
अलंकार की भांति घारण करूँ..
सुलझाओ की
संस्कारों के वहन में
हम सहभागी हैं
सुलझाओ कि इस यात्रा की
परिणति ही प्रेम है..
-निधि सक्सेना
👌🙂
ReplyDeleteवाह अति सुन्दर रचना
ReplyDeleteअद्भुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत प्यारी रचना
ReplyDeleteकभी-कभी किसी न किसी एक को सहभागी होना याद नहीं रह जाता है
ReplyDeleteसुंदर रचना
वाह अद्भुत सृजन👏👏👏👏👏
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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ReplyDeleteस्वयं को ही सखा या
ReplyDeleteमित्र होने के लिए
प्रतीकात्मक
सिन्दूर की प्रासंगिकता
और सहभागी
होने के लिए
तीज और
वट सावित्री पूजन की
एकतरफा सहभागिता,
इन सब पर
तनिक सोचना होगा,
तनिक ठहरना होगा।
तब शायद
बुलाना ना पड़े,
बन कर
सुहाग-सखा की
अनुगामिनी।
श्रृंगार के नाम पर
बेड़ियों-से
होंगे पाँवों में
पायल जब तक,
साड़ी से कई बार
उलझेंगे ही।
( क्षमा याचना सहित ... 🙏 )