Saturday, November 30, 2019

एक हृदय पाने की कोशिश !.....मीना शर्मा


इस कोशिश में शब्द छिन गए
चेहरे की मुस्कान छिन गई
अंतर के सब बोल छिन गए
यादों के सामान छिन गए !
पर हँसने गाने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !

इस दरिया की गहराई में
डूबे उतरे, पार नहीं था
रात गुज़रती तनहाई में
सपनों का उपहार नहीं था !
ज़िंदा रह पाने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !

एक हृदय जो कहीं और था
किसी और की थाती था वह
जीवनभर के संग साथ की
किसी प्रिया की पाती था वह !
कैसी दीवाने की कोशिश !
वही हृदय पाने की कोशिश !

किसी बात पर नहीं रीझना 
किसी बात पर नहीं खीझना
मुझको तुमसे नहीं जीतना 
पहली बारिश नहीं भीगना !
दूर चले जाने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !

धड़कन के इस करुण रुदन पर
घायल मन के मौन कथन पर
अट्टहास करते रहना तुम
इस भोले से अपनेपन पर !!!
इंद्रधनुष छूने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !!!

रचनाकार

Friday, November 29, 2019

सियासी आग का हवन करा रहे हैं वहाँ ...दिलीप

सियासी आग के करतब, दिखा रहे हैं यहाँ...
नाखुदा मुझको भंवर में, फँसा रहे हैं यहाँ...

कोई क्लाइमैक्स सिनेमाई चल रहा है अभी...
मौत के बाद मेरी जाँ बचा रहे हैं यहाँ...

मैने कमरों में भर लिए हैं नुकीले पत्थर...
चुनाव आने की खबर दिखा रहे हैं यहाँ...

न मयस्सर हुई है आग जहाँ लाशों को..
सियासी आग का हवन करा रहे हैं वहाँ...

सऊर है नहीं जिनको सड़क पे चलने का...
गाड़ियाँ वो मुल्क़ की चला रहे हैं यहाँ...

जवान भूख ने माँगा जो उनसे काम ज़रा...
उसे चकले का रास्ता दिखा रहे हैं यहाँ...

आज लाशें चला रही हैं रथ सियासत का...
कई परतों में ज़िंदगी, दबा रहे हैं यहाँ...

एक शायर ने तब लिखी थी इन्क़लाबी ग़ज़ल...
चुनावी भाषणों में अब, भुना रहे हैं यहाँ...
-दिलीप जी

Thursday, November 28, 2019

यादें जाती नहीं .....कुँअर रवीन्द्र

पूरी रात जागता रहा
सपने सजाता,
तुम आती थीं, जाती थीं
फिर आतीं फिर जातीं ,
परन्तु
यादें करवट लिए सो रही थीं

सुबह,
यादों ने ही मुझे झझकोरा
और जगाया,
जब मै जागा
यादें दूर खड़ी हो
घूर-घूर कर मुझे देखती
और मुस्कुरा रहीं थीं

मैंने कहा
चलो हटो ,
आज नई सुबह है
मै नई यादों के साथ रहूँगा

वे नज़दीक आईं
और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगीं

लाख जतन किए
वे गईं नहीं

यादें जाती नहीं
पूरे घर पर
कब्ज़ा कर बैठी हैं

यादें जो एक बार जुड़ जाती है
वे जाती नहीं
बस करवट लेकर
सो जाती हैं
-कुँअर रवीन्द्र

Wednesday, November 27, 2019

कहानी अधूरी,अनुभूति पूरी -प्रेम की ...श्वेता सिन्हा

उम्र के बोझिल पड़ाव पर
जीवन की बैलगाड़ी पर सवार
मंथर गति से हिलती देह
बैलों के गलेे से बंधा टुन-टुन की
 आवाज़ में लटपटाया हुआ मन
अनायास ही एक शाम
चाँदनी से भीगे 
गुलाबी कमल सरीखी
नाजुक पंखुड़ियों-सी चकई को देख
हिय की उठी हिलोर में डूब गया
कुंवारे हृदय के
प्रथम प्रेम की अनुभूति से बौराया
पीठ पर सनसनाता एहसास बाँधे
देर तक सिहरता रहा तन
मासूम हृदय की हर साँस में 
प्रेम रस के मदभरे प्याले की घूँट भरता रहा
मताया 
पलकें झुकाये भावों के समुंदर में बहती चकई
चकवा के पवित्र सुगंध से विह्वल  
विवश मर्यादा की बेड़ी पहने
अनकहे शब्दों की तरंगों से आलोड़ित 
मन के कोटर के कंपकंपाते बक्से के
भीतर ही भीतर
गूलर की कलियों-सी प्रस्फुटित प्रेम पुष्प
छुपाती रही 
तन के स्फुरण से अबोध
दो प्यासे मन का अलौकिक मिलन
आवारा बादलों की तरह
अठखेलियाँ करते निर्जन गगन में
संवेदनाओं के रथ पर आरुढ़
प्रेम की नयी ऋचाएँ गढ़ते रहे
स्वप्नों के तिलिस्म से भरा अनकहा प्रेम
यर्थाथ के खुरदरे धरातल को छूकर भी
विलग न हो सका
भावों को कचरकर देहरी के पाँव तले
लहुलुहान होकर भी
विरह की हूक दबाये
अविस्मरणीय क्षणों की 
टीसती अनुभूतियों को
अनसुलझे प्रश्नों के कैक्टस को अनदेखा कर
नियति मानकर श्रद्धा से
पूजा करेंगे आजीवन
प्रेम की अधूरी कहानी की
पूर्ण अनुभूतियों को।

   -श्वेता सिन्हा


Tuesday, November 26, 2019

वक़्त ..ब्रजेश कानूनगो

व्यंजना है बेअसर, 
कविता से कागज भर गया
नष्ट हो गए पेड़ सारे, 
एक जंगल मर गया.

पीछे पड़े जो कुछ लफंगे, 
बुद्धि ओ उस्ताद के,
द्रोही कलम घोषित हुई, 
विचार निहत्था झर गया.

बांसुरी के वक़्त पर 
शंख का उन्माद है,
आलाप गुम जाने कहां, 
चीखों से गुम्बद भर गया.

महामना के पदों पर 
रास्ते बनते नहीं,
तोड़ निर्बल का घरौंदा 
राजपथ ये बन गया.

कल मैं था तख़्त पर, 
आज जो है यहां
वक़्त रुकता नहीं
वह बहुत घबरा गया.

-ब्रजेश कानूनगो

Monday, November 25, 2019

अंकुराई धरा....श्वेता सिन्हा

धूप की उंगलियों ने 
छू लिया अलसाया तन 
सर्द हवाओं की शरारतों से
तितली-सा फुदका मन

तन्वंगी कनक के बाणों से
कट गये कुहरीले पाश
बिखरी गंध शिराओं में
मधुवन में फैला मधुमास

मन मालिन्य धुल गया
झर-झर झरती निर्झरी 
कस्तूरी-सा मन भरमाये
कंटीली बबूल छवि रसभरी

वनपंखी चीं-चीं बतियाये
लहरों पर गिरी चाँदी हार
अंबर के गुलाबी देह से फूट
अंकुराई धरा, जागा है संसार
-श्वेता

Sunday, November 24, 2019

मैं आत्म हत्या नहीं करना चाहता हूं.....अरुण साथी

फोटो - साभार- गूगल....

मरना कौन चाहता है? 
किसे अच्छा लगता है 
जीना, बनकर एक लाश। 
करने से पहले आत्महत्या, 
करना पड़ता है संधर्ष, 
खुद से। 
पर पाने से पहले 
रेशमी दुनिया, खौलते पानी में डाल देते है 
कोकुन में बंद जमीर को। 
महत्वाकांक्षा 
परस्थिति 
समय और काल 
के तर्क जाल में उलझ 
आदमी मारकर जमीर को कर लेता है 
आत्महत्या, 
और फिर अपने ही शव को 
कंधे पर उठाये जीता रहता है 
ता उम्र.... 

Saturday, November 23, 2019

इश्‍तेहार ....संजय भास्कर


इश्‍तेहार
चाहे किसी कंपनी का हो या
किसी स्कूल,दुकान का
उसे पढ़ना चाहिए
क्योंकि उसे पढ़ने में कोई ड़र नहीं
समय ही ऐसा हो गया है
सब काम ही इश्‍तेहारो से होते है
नई दूकान बनाओ
तो इश्‍तेहार
अस्पताल बनाओ
तो इश्‍तेहार
इश्‍तेहार जिसमे होती है
कुछ सूचनाएं कुछ सन्देश
कुछ आकड़े
कुछ वादे
जिसे खुद भी पढ़ो दूसरो को भी
सुनाओ और हमारी
सेवाओं व् वस्तुओ का फायदा उठाओ
पर इश्‍तेहार के चक्कर में
ठगे जाते है भोले भाले गरीब लोग
अक्सर
इसलिए इश्‍तेहार पढ़े जरूर
पर फैसला ले सोच समझकर
क्योंकि इश्‍तेहार का काम है
सिर्फ सूचना पहुँचाना !!



Friday, November 22, 2019

दर्दे दिल ....श्वेता सिन्हा

दर्दे  दिल  की अजब  कहानी  है
होंठों पर मुस्कां आँखों में पानी है

जिनकी ख़्वाहिश में गुमगश्ता हुये
उस राजा की  कोई और  रानी  है

रात कटती है  यूँ  रोते च़रागों की
ज्यों बाती ने ख़ुदकुशी की ठानी है

दर्द,ग़म,तड़प,अश्क और रूसवाई,
इश्क़ ने जहाँभर की खाक़ छानी है

बेहया दिल टूटकर भी धड़कता है
ज़िंदा लाशों की ये तो बदज़ुबानी है

-श्वेता सिन्हा
गुमगश्ता= भटकता हुआ, खोया हुआ


Thursday, November 21, 2019

आखिरी बुजुर्ग ....कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

आज हो रहा गाँव की
नवनिर्मित रोड का उद्घाटन
यहां अकेले रह रहा आखिरी बुजुर्ग
गाँव छोड़ रहा है
अनमना होकर
किंतु समाप्त नहीं होता
हरे-भरे वृक्षों का मोह
मटके का पानी
मिट्टी का सौंधी महक
ठण्डी हवाएं, फूलों की महक
नहीं है खुश, गहरे दुःख में है
फिर भी जा रहा है दूर शहर
बहू-बेटे के साथ की खातिर
-कविता भट्ट 'शैलपुत्री


Wednesday, November 20, 2019

चाँद -सा मुखड़ा ...ज्योति नामदेव

क्या परिभाषा हो सकती है,
चाँद -से मुखड़े की,
वो जो वासना की ओर
धकेलता है
या फिर वो
जो वासना से पार ले जाता है,

विश्व के सारे प्रेमी
सुन्दर तन, सुन्दर सूरत
को कहते है
चाँद- सा मुखड़ा
लेकिन मै सहमत नहीं
इस उपमा से

चाँद-सा मुखड़ा बनने
के लिए त्यागना
पड़ता है अपना सर्वस्व
जीवन -धारा

तब जाकर बनती है, सीता
तब जाकर बनती है, अहल्या
तब जाकर बनती है, तुलसी
तब जाकर बनती है, गीता

नामों में क्या रखा है जनाब
अपनी कस्तूरी को खोजिए
और आप भी बन जाइए
चाँद -सा मुखड़ा
किसी जिंदगी का टुकड़ा
-ज्योति नामदेव

Tuesday, November 19, 2019

पावस ....डा.विमल ढौंडियाल

अलि गुञ्जन सम मधुहास लिए
तटिनी कलरव परिहास प्रिये!
विधु रश्मियुता शरदीय सखे!
हर लो विरहज संताप प्रिये!

प्राण प्रिये प्रणतात्मन् मैं
प्रणतपाणि प्रणिपात करूँ 
प्रणय प्रेम परिपूर्ण करो 
पावस बन निर्झर सी झरो ||

परिपूर्ण भरो प्रणयी घट को 
प्रणय पाश आलिगंन दो
स्नेह नीर पयोद करें 
पावस बन निर्झर सी झरो ||

लहराओ निज केश छटा
आच्छादित नभ कृष्ण घटा 
दिग्वास करो हिय सुवास भरो 
पावस को मधुमास करो |

कलिका लतिका अलि केलि करे
सुमनायुध वर्ण विवर्ण करे
अनुराग बढा हे  विराग हरो 
अधर पराग का पावस दो ||

आओ इस पल के पालने में
मकरंद सुधारस पान करें 
रति-काम बने अधराधर को 
मकरंद सुधा का पावस दें |
-डा.विमल ढौंडियाल 

Monday, November 18, 2019

पता ...(गुड्डू) दिव्या कुमारी

"गुम हो कहीं ?" पूछा किसी ने
क्या पता है तुझे अपना पता?
क्यों कोई नहीं जानता मुझे इस दुनिया में
क्या कोई नहीं है मेरा अपना!!

भूल गई हूँ अपना पता,
रोज़ मेरा पता बदलता है।
पहले माँ का घर पे थी टेहरी
वही था मेरा पता तब।

तब आयी मेरे साथी की बारी
सफ़र था कोई जिसमें
उसका साथ था ज़रूरी
चली मैं उसके साथ,
फिर बदल गया मेरा पता तब।

फिर थी मेरे अंशों की बारी,
कहाँ, रखेंगे हम तुम्हारा ख़्याल,
बस बदल दो अपना पता,
फिर मेरा पता बदल गया।

मैं किस पते को अपना कहूँ?
जब पूछे मुझसे मेरा पता
मैं कौन-सा पता बताऊँ,
जो मैं आपने घर पहुंच जाऊँ।

मेरा पता कोई मुझे बता दे,
बस एक ऐसा पता जो हमेशा मेरा रहे
जिसे मैं बता सकूँ अपना पता
बस एक ऐसा पता जो हमेशा रहे मेरा।
-(गुड्डू) दिव्या कुमारी


Sunday, November 17, 2019

मां .....विभूति गोण्डवी

कैसे लिखूं,
मां पर,
निःशब्द हो जाता हूं मैं,
ज्ञान शून्य हो जाता हूं मैं ।

कैसे लिखूं,
मां पर,
कोई शब्द ही नही,
जो मां को परिभाषित कर सके ।

कैसे लिखूं,
मां पर,
मां के त्याग को,
कैसे कोई परिभाषित कर सकता है ।

कैसे लिखूं,
मां पर,
मां के दर्द को,
कैसे कोई परिभाषित कर सकता है ।

मां वो कल्पवृक्ष  है,
जिसकी छांव में ही ये जीवन गुलज़ार है,
नहीं तो ये जीवन,
बेजान है ।
-विभूति गोण्डवी

Saturday, November 16, 2019

राक्षस देखना हो अपने अन्दर का.... ओंकार केडिया


कभी अपने अन्दर का
राक्षस देखना हो,
तो उग्र भीड़ में
शामिल हो जाना.

जब भीड़ से निकलो,

तो सोचना
कि जिसने पत्थर फेंके थे,
आगजनी की थी,
तोड़-फोड़ की थी,
बेगुनाहों पर जुल्म किया था,
जिसमें न प्यार था, न ममता,
न इंसानियत थी, न करुणा,
जो बिना वज़ह
पागलों-सी हरकतें कर रहा था,
वह कौन था?

उसे जान लो,

अच्छी तरह पहचान लो,
देखो, तुम्हें पता ही नहीं था
कि वह तुम्हारे अन्दर ही
कहीं छिपा बैठा है...!!

लेखक परिचय - ओंकार जी केडिया

Friday, November 15, 2019

मैं पहले ही राख हूँ जलता नहीं हूँ ....अमित मिश्रा 'मौन'

मैं गुलों के जैसा महकता नहीं हूँ।
सितारा हूँ लेकिन चमकता नहीं हूँ।।

ज़माना ये समझे कि खोटा हूँ सिक्का,
बाज़ारों में इनकी मैं चलता नहीं हूँ।

यूँ  तो अंधेरों से जिगरी है यारी,
मैं ऐसा हूँ सूरज कि ढलता नहीं हूँ।

सफ़र पे जो निकला तो मंज़िल ज़रूरी,
यूँ राहों में ऐसे  मैं रुकता नहीं  हूँ।

उम्मीद-ए-वफ़ा  ने है तोड़ा  मुझे भी,
मैं आशिक़ के जैसा तड़पता नहीं हूँ।

कोशिश में ज़ालिम की कमी नहीं थी,
मैं पहले ही राख हूँ जलता नहीं  हूँ।

मयखानों की रौनक है शायद मुझी से,
मैं कितना भी पी लूँ बहकता नहीं हूँ।

सूरत से ज़्यादा  मैं  सीरत  को चाहूँ,
रुख़सारों पे चिकने फिसलता नहीं हूँ।

मुसीबत से अक़्सर कुश्ती हूँ करता,
है लोहा बदन मेरा थकता नहीं हूँ।

मिट्टी का बना हूँ ज़मीं से जुड़ा हूँ,
खुले आसमानों में उड़ता नहीं हूँ।

हुनर पार करने का सीखा है मैंने,
बीच भँवर अब मैं फंसता नहीं हूँ।

'मौन' भला  हूँ ना छेड़ो मुझे तुम,
मैं यूँ ही किसी के मुँह लगता नहीं हूँ।
- अमित मिश्रा 'मौन'

Thursday, November 14, 2019

एक बार पा तो लूँ, उसे ....रत्ना सिन्हा

मंज़िलों को पाने का मज़ा भी तभी है
जब तक वो ना मिले;
मिल जाये वो अगर तो लगता है
जैसे ख़्वाब कोई हक़ीक़त बन गए।
और, ना मिले वो अगर तो लगता है
जैसे ज़मीन-आसमां सब इक कर दूँ।
चाँद-सितारे भी तोड़ डालूँ, पर
एक बार पा तो लूँ, उसे।

चाहे जैसा भी हो वो, हर उपाए कर लूँ,
मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरूद्वारे के चक्कर भी ,
चाहे जितनी बार हो सके लगा लूँ।
पंडित-ज्योतिष-फ़क़ीर ने तो, न जाने
कितनी बार हाथों की लकीरें भी पढ़ी हो;
उसे पाने की चाह इतनी प्रबल हो जाती
कुछ भी कर गुज़रने को जी चाहता, बस
एक बार पा तो लूँ, उसे।

उसे पाने की कोई कसर बाकी न रह जाए,
ऐसी चाहत मात्र से ही हिम्मत और हौसले भी
सिर चढ़ कर बोलने लग जाते हैं जब,
तुन्हें न पाने की भी कोई गुंजाइश ही नहीं तब
हर वो मुसीबत मोल ली, बस
एक बार उसे पाने की जिद्द् ने
फिर, कितने जंग लड़े हो जैसे
पाकर मंज़िल भी धन्य हो गए वैसे!
-रत्ना सिन्हा

Wednesday, November 13, 2019

नर्म आहट खुशबुओं की ....कुमार रवीन्द्र

आज फिर
इन सीढियों पर
नर्म आहट खुशबुओं की

दबे पाँवों धूप लौटी
और कमरे में घुसी
उँगलियाँ पकड़े हवा की
चढ़ी छज्जे पर ख़ुशी

बात फिर
होने लगी है
फुसफुसाहट खुशबुओं की

एक नीली छाँव
दिन भर
खिड़कियाँ छूने लगी
आँख-मींचे देखती रितु
ढाई आखर की ठगी

तितलियाँ
दालान भर में
है बुलाहट खुशबुओं की
1940-2019

-कुमार रवीन्द्र



Tuesday, November 12, 2019

आहट जो तुमसे होकर मुझ तक आती है ...स्मृति आदित्य


रिश्तों की बारीक-बारीक तहें
सुलझाते हुए
उलझ-सी गई हूं,
रत्ती-रत्ती देकर भी
लगता है जैसे
कुछ भी तो नहीं दिया,
हर्फ-हर्फ
तुम्हें जानने-सुनने के बाद भी
लगता है
जैसे अजनबी हो तुम अब भी,

हर आहट
जो तुमसे होकर
मुझ तक आती है
भावनाओं का अथाह समंदर
मुझमें आलोड़‍ित कर
तन्हा कर जाती है।

एक साथ आशा से भरा,
एक हाथ विश्वास में पगा और
एक रिश्ता सच पर रचा,

बस इतना ही तो चाहता है
मेरा आकुल मन,
दो मुझे बस इतना अपनापन...
बदले में
लो मुझसे मेरा सर्वस्व-समर्पण....
-स्मृति आदित्य 'फाल्गुनी'
वेब दुनिया से


Monday, November 11, 2019

मुक्त रखने का वादा है मेरा ...निधि सक्सेना

एक समय वो भी रहा
जब हर चीज़ कस कर पकड़ने की आदत थी
चाहे अनुभूतियाँ हों
पल हों
रिश्ते हों
या कोई मर्तबान ही
मुट्ठियाँ भिंची रहती

जब स्थितियाँ बदलतीं
और चीज़े हाथ से फिसलती
तो नाखूनों में रह जाती किरचनें
स्मृतियों की
लांछनों की
छटपटाहटों की
कांच की

अजीब सा दंश था
कि मैं दिन भर नाखून साफ करती
और रात भर किरचनों की गर्त मझे खरोंचती
वक्त उन्ही किरचनों में भटकता रहता
मैं बेबसी और कुंठा से भरती जाती

परंतु अब सीख लिया है
चीज़ों को हल्के हाथ से पकड़ना
वक्त को मुक्त रखना
जाती हुई चीज़ो को विसर्जित कर देना

नाखूनों में कोई किरचन गर रह गई हो
तो बगैर गौर किये
भूलते जाना भुलाते जाना

कि ऐ जिन्दगी
उम्मीद का सेहरा बाँध कर आना
तुझे बीते वक्त की हर किरचन से 
मुक्त रखने का वादा है मेरा.
-निधि सक्सेना