माँ..
सारे दिन खटपट करतीं
लस्त- पस्त हो
जब झुँझला जातीं
तब...
तुम कहतीं-एक दिन
ऐसे ही मर जाउँगी
कभी कहतीं -
देखना मर कर भी
एक बार तो उठ जाउँगी
कि चलो-
समेटते चलें
हम इस कान सुनते
तुम्हारा झींकना
और उस कान निकाल देते
क्योंकि-
हम अच्छी तरह जानते थे
माँ भी कभी मरती हैं !
कितने सच थे हम
आज..
जब अपनी बेटी के पीछे
किटकिट करती
घर- गृहस्थी झींकती हूँ
तो कहीं-
मन के किसी कोने में छिपी
आँचल में मुँह दबा
तुम धीमे-धीमे
हंसती हो माँ...!!!
-उषा किरण
"ताना- बाना” से
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 19 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही उउत्कृष्ट रचना। मैंने दो बार पढ़ा।
ReplyDeleteवाह, माँ ही में बेटी बसती है और बेटी में माँ समाहित हो जाती है , अपने संस्कारों के रूप में वो हमेशा बेटी में व्याप्त रहती है। शुभकामनायें उषा जी 🙏🙏🙏🙏💐💐🌷🌹
ReplyDeleteवाह!बेहतरीन!
ReplyDeleteसच भी है, और सुंदर भी!
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