Tuesday, May 19, 2020

माँ .....उषा किरण


माँ..
सारे दिन खटपट करतीं 
लस्त- पस्त हो 
जब झुँझला जातीं  
तब... 
तुम कहतीं-एक दिन   
ऐसे ही मर जाउँगी   
कभी कहतीं - 
देखना मर कर भी  
एक बार तो उठ जाउँगी  
कि चलो-  
समेटते चलें 
हम इस कान सुनते 
तुम्हारा झींकना 
और उस कान निकाल देते 
क्योंकि- 
हम अच्छी तरह जानते थे 
माँ भी कभी मरती हैं ! 
कितने सच थे हम 
आज..
जब अपनी बेटी के पीछे 
किटकिट करती  
घर- गृहस्थी झींकती हूँ  
तो कहीं- 
मन के किसी कोने में छिपी 
आँचल में मुँह दबा    
तुम धीमे-धीमे
हंसती हो माँ...!!!
-उषा किरण
"ताना- बाना” से

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 19 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत ही उउत्कृष्ट रचना। मैंने दो बार पढ़ा।

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  3. वाह, माँ ही में बेटी बसती है और बेटी में माँ समाहित हो जाती है , अपने संस्कारों के रूप में वो हमेशा बेटी में व्याप्त रहती है। शुभकामनायें उषा जी 🙏🙏🙏🙏💐💐🌷🌹

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  4. सच भी है, और सुंदर भी!

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