Sunday, October 13, 2019

नौकरी तो मैं वर्षों से कर रही थी ....डॉ. मधुसूदन चौबे

थक गया यह सोच कर रस्ता दिखा देगी मुझे
अपनी ही रफ़्तार से चलती रही है जिन्दगी 
सुन, तू मेरी माँ नहीं, काम वाली बाई है.. 
शहर में मिलती नहीं, गाँव से आई है .

कोई भी पूछे, तो सबको यही बताना.. 
यहाँ मत रुक, जा अन्दर चली जा ना .

घंटी बजे तो तुरंत बहार आना है ..,
'जी' कह कर अदब से सर झुकाना है ...
मुझसे मिलने आये विजिटर्स के लिए ...,
'शालीनता' से चाय - पानी लाना है...

बहू 'मैडम' और में तेरे लिए 'सर' हूँ. 
अब मैं 'पप्पू' नहीं, बड़ा अफसर हूँ.. 

माँ हंसी, फिर बोली मुझे मंजूर है ..,
तेरी उपलब्धि पर मुझे गुरुर है. ..
बचपन में गोबर बीनने वाला पप्पू. ...,
आज जिले का माई-बाप और हुजूर है. ..

नौकरी तो मैं वर्षों से कर रही थी ..,
गंदगी साफ़ कर, तेरी फीस भर रही थी..
दिल्ली कोचिंग का शुल्क देने के लिए ....,
में ख़ुशी-ख़ुशी 'पाप' कर रही थी ...

सुनो, बाई, जल्दी से नाश्ता लगाओ ....,
तभी 'मैडम' की कर्कश आवाज आई थी ..../
वह जो धरती पर ईश्वर का विकल्प थी .....,
अपनी नियति पर उसकी आँख छलक आई थी...//

3 comments:

  1. बहुत ही मर्मान्तक काव्यचित्र कवि की सधी लेखनी से जो समाज का विद्रूप चेहरा दिखाता है |
    पर बहु को तो नहीं माँ ने बेटे को पाला था
    खुद भूखी थी पर उसको जी भर दिया निवाला था
    बेटा है कृतघ्न तो बहु बहुत है मक्कार

    देना होगा हिसाब कभी जो किया है अत्याचार

    माँ की आहें एक दिन लग समय लौट वही आयेगा

    आज पति ने आँख दिखाई माँ को कल बेटा उसे दिखाएगा

    जब गरीबी में पला बेटा भी माँ का ना हो पाया

    कैसे धनवान पिता बेटे से कोई आस रख पायेगा !


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  2. आज के कटु सत्य पर आधारित बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन...
    वाह!!!!

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